कर्म, धन, और प्रारब्ध
धन प्रारब्ध से मिलता हैं या पुरुषार्थ से? (Does wealth come from destiny or effort?)
धन प्रारब्ध से मिलता है, तो पुरुषार्थ क्यों जरुरी है? (Money comes from destiny, so why is effort necessary?)
अच्छे कर्म करने के बावजूद भी बुरे फल क्यों? (Why does one get bad results despite doing good deeds?)
यह सब समझने के लिए पहले कर्म को समझना पड़ेगा। सभी शास्त्र और धार्मिक ग्रन्थ कर्म के बारेमें ही समझाते है। ज्योतिष हो या वास्तु, कोई भी विद्या कर्म पर आधारित है। वैसे तो कर्म के अनेक प्रकार है, मगर अभी सिर्फ मुख्य 3 प्रकारके कर्म समझनेकी जरूरत है।
कर्म क्या है? (What is Karma)
कर्म का अर्थ है क्रिया। सोचना, सुनना, देखना; जो भी इंद्रियां द्वारा किए जानेवाले कार्य है वह भौतिक कर्म कहलाते है। पतंजलि योगसूत्र हो या आयुर्वेद हो, दोनों में प्रकृति और पुरुष को बहुत अच्छे से समझाया है। पुरुष प्रकृति के साथ जब सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब प्रकृति की क्रिया पुरुषका “कर्म” बन जाता है। जब तक व्यक्ति प्रकृति के अनुसार काम, ममता, तादाम्य बनाके रखता है वह कर्म सही होता है। जैसे ही तादाम्य टूट जाता है वो कर्म अकर्म हो जाता है।
कर्म के प्रकार (Types of Karma)
मुख्यत: तीन प्रकार के कर्म होते है – क्रियमाण, संचित, और प्रारब्ध।
वर्त्तमान में किये जानेवाले कर्म क्रियमाण कर्म कहलाते है। पहले अनेक मनुष्यजन्मों में जो कर्म संगृहीत है, वह संचित कर्म कहलाते है। यह मनुष्य को जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में परणित होनेके लिए सामने आते हैं वह प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं।
मनुष्यको पूर्वजन्मके किए कर्म अनुसार संस्कार एवं भाग्य मिलता है। सभी सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां पूर्वजन्मके कर्म के आधार पर मिलती है जो संचित कर्मो के अंश मात्र प्रारब्धरूप से भोग करने के लिए प्राप्त होती है। क्रियमाण कर्म से नए प्रारब्ध बनाए जा सकते है। उनमे से कुछ कर्मो का फल तुरंत या कुछ समय दरमियान मिलता है और कुछ कर्म संचित कर्म में जमा होते है।
अब आता है सवाल धन और भोग का
प्रारब्ध में जितना धन या भोग लिखा होता है उतना ही प्राप्त होता है। और जो पुरुषार्थ करते है वह कर्म जुड़ता जाता है। धन प्राप्त करना और भोगना दोनों अलग बात हैं। यह दोनों प्रारब्ध के अनुसार हैं। पूर्वजन्म के कर्म अनुसार वर्तमान समय में धन और भोग दोनों प्राप्त होते हैं। कोई व्यक्ति धन प्राप्त कर लेता हैं मगर भोग नहीं पाता और कोई धन नहीं प्राप्त कर पाता मगर कैसे भी भोग प्राप्त कर लेता हैं। उस व्यक्ति को दया से, मित्रता से, काम धंधा मिलते रहने से प्रारब्ध अनुसार जीवन निर्वाह की सामग्री मिलती रहती हैं।
परन्तु मनुष्य प्रारब्ध पर विश्वास नहीं करता और बहोत कम लोग पुरुषार्थ पर भी विश्वास नहीं करते। अगर मनुष्य के प्रारब्ध में धन और भोग हैं तो उसे कम आमदनी होने के बावजूद भी किसी भी तरह प्राप्त होता हैं जैसे की मकान बनाते समय जमीनसे गड़ा हुआ धन प्राप्त होना, वसीहत दे जाना वगेरे।
क्रियमाण कर्म मनुष्य के हाथ में है। वह पुरुषार्थ करके नए संचित कर्म बनाकर नया प्रारब्ध बना सकते है। मगर वह फल कब मिलेगा वह नियति ही चुनती है। इसीलिए मनुष्य को पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ना चाहिए। पुरुषार्थ भी बहोत महत्वपूर्ण है।
उदाहरण: (Story on Karma)
एक दुकानदार है, जो दुकान से ठीकठाक आमदनी अर्जित करलेता है। एक दिन वह आमदनी बढ़ानेके लिए क्या कर सकता है वह सोचकर कामप्रति निष्ठापूर्वक खूब महेनत करने लगता है। जहाँ शारीरिक परिश्रम की ज़रूरत है वहाँ शारीरिकरूप से महेनत करता है और जहाँ मानसिकरूप से महेनत करनी है वहाँ मानसिक महेनत करता है। उसकी रूचि, बुद्धि, निष्ठां, महेनत के कारण उसकी दुकान में लोग आने लगते है। कुछ लोग दुकान आते और सामग्री खरीदते और कुछ लोग चले जाते। दूसरी और उसका पडोसी दुकानदार कुछ अधिकतर उसकी तरह महेनत नहीं करता मगर उसकी दुकान में खूब ग्राहक आते-जाते रहते है और अच्छी आमदनी होती रहती है। वह दुकानदार सोचता की में इतनी महेनत करता हूँ मगर बिक्री क्यों नहीं बढ़ी? अच्छा सामान बेचता हूँ, अच्छी सेवा भी देता हूँ। मगर वह महेनत करना नहीं छोड़ता। वह दुकानदार बूढ़ा हो जाता है और वह दुकान उसका पुत्र संभालना शुरू करता है। उसका पुत्र भी उसकी तरह खूब महेनत करता है और जैसी सेवा और सामान ग्राहक को पिताजी देते थे, वैसे ही पुत्र भी बनाए रखता है। एक दिन उसकी दुकान का खूब नाम होता है और आमदनी इतनी होती है की वह कई नवी दुकान खोल लेते है।
अब इस कहानी में कर्म को समझते है – दुकानदार जो भी धन अर्जित करता था वह उसके प्रारब्धके अनुसार मिल रहा था। उसने जो महेनत की वह उसका पुरुषार्थ था और क्रियमाण कर्म भी। इसीलिए क्रियमाण कर्म का फल स्वरुप उसकी दूकान पर ज्यादा ग्राहक आने शुरू हुए। मगर उसकी ज्यादा आमदनी नहीं बढ़ी क्योंकि वह जो प्रारब्ध लेकर आया है उसके अनुसार उसको जितना मिलना था उतना ही मिल रहा था। वहीं दूसरी ओर पडोसी दुकारदार के प्रारब्ध में ज्यादा धन था इसीलिए दुकानदार के मुकाबले कम महेनत में भी ज्यादा आमदनी अर्जित कर लेता था।
दुकानदार का पुरुषार्थ भी खाली नहीं गया। उसके क्रियमाण कर्म में कुछ फल वर्तमान स्थिति में प्राप्त हुए और कुछ फल संचित कर्म में जुड़ता गया। दुकानदार का जब समय पका तब वह बूढ़ा हो चूका था, अब उसका भोग करने का समय शुरू हुआ और साथ ही उसके पुरुषार्थ का फल मिलना शुरू हुआ दुकानसे आमदनी बढ़ने लगी और प्रसिद्धि भी मिली।
दुकानदार के पुत्र का क्या प्रारब्ध होगा और उसके कर्म के बारे में आपभी सोच सकते है।
कर्म के फल किसी भी स्वरुप और किसी भी समय में मिल सकते है। वह मनुष्य नहीं पहचान सकता कब और कैसे मिलेंगे। बुरे कर्म या अच्छे कर्म करना यह मनुष्य के हाथ में है।
गीताजी में श्रीकृष्ण कहते है ” तू बस कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर। “
भावार्थ
प्राप्त होने वाला धन मनुष्य को मिलता ही हैं , दैव भी उसका उलंघन नहीं कर सकते। इसीलिए न तो शोक करना और न विस्मय होना चाहिए, क्योंकि जो अपना हैं वो अपना हैं। जो दुसरो का हैं वह दूसरे का हैं। तात्पर्य यह की ‘करना’ पुरुषार्थ के आधीन हैं और ‘होना’ प्रारब्ध के आधीन हैं।
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